काशी को इतना पवित्र क्यों मानते है


पवित्र नगरी

वाराणसी के एक घाट पर लोग हिन्दू रिवाज करते हुए।

वाराणसी या काशी को हिन्दू धर्म में पवित्रतम नगर बताया गया है। यहां प्रतिवर्ष १० लाख से अधिक तीर्थ यात्री आते हैं।[10] यहां का प्रमुख आकर्षण है काशी विश्वनाथ मंदिर, जिसमें भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग में से प्रमुख शिवलिंग यहां स्थापित है।[झ][11][12]

हिन्दू मान्यता अनुसार गंगा नदी सबके पाप मार्जन करती है और काशी में मृत्यु सौभाग्य से ही मिलती है और यदि मिल जाये तो आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो कर मोक्ष पाती है। इक्यावन शक्तिपीठ में से एक विशालाक्षी मंदिर यहां स्थित है, जहां भगवती सती की कान की मणिकर्णिका गिरी थी। वह स्थान मणिकर्णिका घाट के निकट स्थित है।[13] हिन्दू धर्म में शाक्त मत के लोग देवी गंगा को भी शक्ति का ही अवतार मानते हैं। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म पर अपनी टीका यहीं आकर लिखी थी, जिसके परिणामस्वरूप हिन्दू पुनर्जागरण हुआ। काशी में वैष्णव और शैव संप्रदाय के लोग सदा ही धार्मिक सौहार्द से रहते आये हैं।

वाराणसी बौद्ध धर्म के पवित्रतम स्थलों में से एक है और गौतम बुद्ध से संबंधित चार तीर्थ स्थलों में से एक है। शेष तीन कुशीनगरबोध गया और लुंबिनी हैं। वाराणसी के मुख्य शहर से हटकर ही सारनाथ है, जहां भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन दिया था। इसमें उन्होंने बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्दांतों का वर्णन किया था। अशोक-पूर्व स्तूपों में से कुछ ही शेष हैं, जिनमें से एक धामेक स्तूप यहीं अब भी खड़ा है, हालांकि अब उसके मात्र आधारशिला के अवशेष ही शेष हैं। इसके अलावा यहां चौखंडी स्तूप भी स्थित है, जहां बुद्ध अपने प्रथम शिष्यों से (लगभग ५वीं शताब्दी ई.पू या उससे भी पहले) मिले थे। वहां एक अष्टभुजी मीनार बनवायी गई थी।

वाराणसी हिन्दुओं एवं बौद्धों के अलावा जैन धर्म के अवलंबियों के लिये भी पवित तीर्थ है। इसे २३वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का जन्मस्थान माना जाता है।[14] वाराणसी पर इस्लाम संस्कृति ने भी अपना प्रभाव डाला है। हिन्दू-मुस्लिम समुदायों में तनाव की स्थिति कुछ हद तक बहुत समय से बनी हुई है।

गंगा नदी

गंगा वाराणसी की जीवनरेखा।

भारत की सबसे बड़ी नदी गंगा करीब २,५२५ किलोमीटर की दूरी तय कर गोमुख से गंगासागर तक जाती है। इस पूरे रास्ते में गंगा उत्तर से दक्षिण की ओर यानि उत्तरवाहिनी बहती है।[10] केवल वाराणसी में ही गंगा नदी दक्षिण से उत्तर दिशा में बहती है। यहां लगभग ८४ घाट हैं। ये घाट लगभग ६.५ किमी लं‍बे तट पर बने हुए हैं। इन ८४ घाटों में पांच घाट बहुत ही पवित्र माने जाते हैं। इन्हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थी' कहा जाता है। ये हैं अस्सी घाट, दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकर्णिक घाट। अस्सी ‍घाट सबसे दक्षिण में स्थित है जबकि आदिकेशवघाट सबसे उत्तर में स्थित हैं।[15]

घाट

वाराणसी में १०० से अधिक घाट हैं। शहर के कई घाट मराठा साम्राज्य के अधीनस्थ काल में बनवाये गए थे। वर्तमान वाराणसी के संरक्षकों में मराठा, शिंदे (सिंधिया), होल्करभोंसले और पेशवा परिवार रहे हैं। अधिकतर घाट स्नान-घाट हैं, कुछ घाट अन्त्येष्टि घाट हैं। कई घाट किसी कथा आदि से जुड़े हुए हैं, जैसे मणिकर्णिका घाट, जबकि कुछ घाट निजी स्वामित्व के भी हैं। पूर्व काशी नरेश का शिवाला घाट और काली घाट निजी संपदा हैं। वाराणसी में अस्सी घाट से लेकर वरुणा घाट तक सभी घाटों की दक्षिण की ओर से क्रमवार सूची[16][17] इस प्रकार से है:

इस संदूक को: देखें • संवाद • संपादन
  • अस्सी घाट
  • गंगामहल घाट
  • रीवां घाट
  • तुलसी घाट
  • भदैनी घाट
  • जानकी घाट
  • माता आनंदमयी घाट
  • जैन घाट
  • पंचकोट घाट
  • प्रभु घाट
  • चेतसिंह घाट
  • अखाड़ा घाट
  • निरंजनी घाट
  • निर्वाणी घाट
  • शिवाला घाट
  • गुलरिया घाट
  • दण्डी घाट
  • हनुमान घाट
  • प्राचीन हनुमान घाट
  • मैसूर घाट
  • हरिश्चंद्र घाट
  • लाली घाट
  • विजयानरम् घाट
  • केदार घाट
  • चौकी घाट
  • क्षेमेश्वर घाट
  • मानसरोवर घाट
  • नारद घाट
  • राजा घाट
  • गंगा महल घाट
  • पाण्डेय घाट
  • दिगपतिया घाट
  • चौसट्टी घाट
  • राणा महल घाट
  • दरभंगा घाट
  • मुंशी घाट
  • अहिल्याबाई घाट
  • शीतला घाट
  • प्रयाग घाट
  • दशाश्वमेघ घाट
  • राजेन्द्र प्रसाद घाट
  • मानमंदिर घाट
  • त्रिपुरा भैरवी घाट
  • मीरघाट घाट
  • ललिता घाट
  • मणिकर्णिका घाट
  • सिंधिया घाट
  • संकठा घाट
  • गंगामहल घाट
  • भोंसलो घाट
  • गणेश घाट
  • रामघाट घाट
  • जटार घाट
  • ग्वालियर घाट
  • बालाजी घाट
  • पंचगंगा घाट
  • दुर्गा घाट
  • ब्रह्मा घाट
  • बूँदी परकोटा घाट
  • शीतला घाट
  • लाल घाट
  • गाय घाट
  • बद्री नारायण घाट
  • त्रिलोचन घाट
  • नंदेश्वर घाट
  • तेलिया- नाला घाट
  • नया घाट
  • प्रह्मलाद घाट
  • रानी घाट
  • भैंसासुर घाट
  • राजघाट
  • आदिकेशव या वरुणा संगम घाट

काशी के घाट। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र। सुनील झा। अभिगमन तिथि:२९ अप्रैल २०१०[18]

वाराणसी में गंगा के तट पर कतारबद्ध घाटों का विहंगम दृश्य

प्रमुख घाट

वाराणसी में दशाश्वमेध घाट पर गंगाजी की आरती का दृश्य
दशाश्वमेध घाट
काशी विश्वनाथ मंदिर के निकट ही स्थित है और सबसे शानदार घाट है।इससे संबंधित दो पौराणिक कथाएं हैं: एक के अनुसार ब्रह्मा जी ने इसका निर्माण शिव जी के स्वागत हेतु किया था। दूसरी कथा के अनुसार ब्रह्माजी ने यहां दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। प्रत्येक संध्या पुजारियों का एक समूह यहां अग्नि-पूजा करता है जिसमें भगवान शिव, गंगा नदी, सूर्यदेवअग्निदेव एवं संपूर्ण ब्रह्मांड को आहुतियां समर्पित की जाती हैं। यहां देवी गंगा की भी भव्य आरती की जाती है।
मणिकर्णिका घाट
इस घाट से जुड़ी भी दो कथाएं हैं। एक के अनुसार भगवान विष्णु ने शिव की तपस्या करते हुए अपने सुदर्शन चक्र से यहां एक कुण्ड खोदा था। उसमें तपस्या के समय आया हुआ उनका स्वेद भर गया। जब शिव वहां प्रसन्न हो कर आये तब विष्णु के कान की मणिकर्णिका उस कुंड में गिर गई थी। दूसरी कथा के अनुसार भगवाण शिव को अपने भक्तों से छुट्टी ही नहीं मिल पाती थी। देवी पार्वती इससे परेशान हुईं और शिवजी को रोके रखने हेतु अपने कान की मणिकर्णिका वहीं छुपा दी और शिवजी से उसे ढूंढने को कहा। शिवजी उसे ढूंढ नहीं पाये और आज तक जिसकी भी अन्त्येष्टि उस घाट पर की जाती है, वे उससे पूछते हैं कि क्या उसने देखी है?प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका घाट का स्वामी वही चाण्डाल था, जिसने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को खरीदा था। उसने राजा को अपना दास बना कर उस घाट पर अन्त्येष्टि करने आने वाले लोगों से कर वसूलने का काम दे दिया था। इस घाट की विशेषता ये है, कि यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि लगातार जलती ही रहती है, कभी भी बुझने नहीं पाती।
सिंधिया घाट
सिंधिया घाट, जिसे शिन्दे घाट भी कहते हैं, मणिकर्णिका घाट के उत्तरी ओर लगा हुआ है। यह घाट काशी के बड़े तथा सुंदर घाटों में से एक है। इस घाट का निर्माण १५० वर्ष पूर्व १८३० में ग्वालियर की महारानी बैजाबाई सिंधिया ने कराया था तथा और इससे लगा हुआ शिव मंदिर आंशिक रूप से नदी के जल में डूबा हुआ है। इस घाट के ऊपर काशी के अनेकों प्रभावशाली लोगों द्वारा बनवाये गए मंदिर स्थित हैं। ये संकरी घुमावदार गलियों में सिद्ध-क्षेत्र में स्थित हैं। मान्यतानुसार अग्निदेव का जन्म यहीं हुआ था। यहां हिन्दू लोग वीर्येश्वर की अर्चना करते हैं और पुत्र कामना करते हैं। १९४९ में इसका जीर्णोद्धार हुआ। यहीं पर आत्माविरेश्वर तथा दत्तात्रेय के प्रसिद्ध मंदिर हैं। संकठा घाट पर बड़ौदा के राजा का महल है। इसका निर्माण महानाबाई ने कराया था। यहीं संकठा देवी का प्रसिद्ध मंदिर है। घाट के अगल- बगल के क्षेत्र को "देवलोक' कहते हैं।
मान मंदिर घाट
जयपुर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने ये घाट १७७० में बनवाया था। इसमें नक्काशी से अलंकृत झरोखे बने हैं। इसके साथ ही उन्होंने वाराणसी में यंत्र मंत्र वेधशाला भी बनवायी थी जो दिल्लीजयपुरउज्जैनमथुरा के संग पांचवीं खगोलशास्त्रीय वेधशाला है। इस घाट के उत्तरी ओर एक सुंदर बारजा है, जो सोमेश्वर लिंग को अर्घ्य देने के लिये बनवाया गई थी।
ललिता घाट
स्वर्गीय नेपाल नरेश ने ये घाट वाराणसी में उत्तरी ओर बनवाया था। यहीं उन्होंने एक नेपाली काठमांडु शैली का पगोडा आकार गंगा-केशव मंदिर भी बनवाया था, जिसमें भगवान विष्णु प्रतिष्ठित हैं। इस मंदिर में पशुपतेश्वर महादेव की भी एक छवि लगी है।
असी घाट
असी घाट असी नदी के संगम के निकट स्थित है। इस सुंदर घाट पर स्थानीय उत्सव एवं क्रीड़ाओं के आयोजन होते रहते हैं। ये घाटों की कतार में अंतिम घाट है। ये चित्रकारों और छायाचित्रकारों का भी प्रिय स्थल है। यहीं स्वामी प्रणवानंदभारत सेवाश्रम संघ के प्रवर्तक ने सिद्धि पायी थी। उन्होंने यहीं अपने गोरखनाथ के गुरु गंभीरानंद के गुरुत्व में भगवान शिव की तपस्या की थी।
अन्य
आंबेर के मान सिंह ने मानसरोवर घाट का निर्माण करवाया था। दरभंगा के महाराजा ने दरभंगा घाट बनवाया था। गोस्वामी तुलसीदास ने तुलसी घाट पर ही हनुमान चालीसा[19] और रामचरितमानस की रचना की थी। बचरज घाट पर तीन जैन मंदिर बने हैं और ये जैन मतावलंबियों का प्रिय घाट रहा है। १७९५ में नागपुर के भोसला परिवार ने भोसला घाट बनवाया। घाट के ऊपर लक्ष्मी नारायण का दर्शनीय मंदिर है। राजघाट का निर्माण लगभग दो सौ वर्ष पूर्व जयपुर महाराज ने कराया।

मंदिर

रामनगर, वाराणसी में दुर्गा मंदिर

वाराणसी मंदिरों का नगर है। लगभग हर एक चौराहे पर एक मंदिर तो मिल ही जायेगा। ऐसे छोटे मंदिर दैनिक स्थानीय अर्चना के लिये सहायक होते हैं। इनके साथ ही यहां ढेरों बड़े मंदिर भी हैं, जो वाराणसी के इतिहास में समय समय पर बनवाये गये थे। इनमें काशी विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, ढुंढिराज गणेश, काल भैरव, दुर्गा जी का मंदिर, संकटमोचन, तुलसी मानस मंदिर, नया विश्वनाथ मंदिर, भारतमाता मंदिर, संकठा देवी मंदिर व विशालाक्षी मंदिर प्रमुख हैं।[20]

काशी विश्वनाथ मंदिर, जिसे कई बार स्वर्ण मंदिर भी कहा जाता है,[21] अपने वर्तमान रूप में १७८० में इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्करद वारा बनवाया गया था। ये मंदिर गंगा नदी के दशाश्वमेध घाट के निकट ही स्थित है। इस मंदिर की काशी में सर्वोच्च महिमा है, क्योंकि यहां विश्वेश्वर या विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग स्थापित है। इस ज्योतिर्लिंग का एक बार दर्शनमात्र किसी भी अन्य ज्योतिर्लिंग से कई गुणा फलदायी होता है। १७८५ में तत्कालीन गवर्नर जनरल वार्रन हास्टिंग्स के आदेश पर यहां के गवर्नर मोहम्मद इब्राहिम खां ने मंदिर के सामने ही एक नौबतखाना बनवाया था। १८३९ में पंजाब के शासक पंजाब केसरी महाराजा रणजीत सिंह इस मंदिर के दोनों शिखरों को स्वर्ण मंडित करवाने हेतु स्वर्ण दान किया था। २८ जनवरी १९८३ को मंदिर का प्रशासन उत्तर प्रदेश सरकार नेल लिया और तत्कालीन काशी नरेश डॉ॰विभूति नारायण सिंह की अध्यक्षता में एक न्यास को सौंप दिया। इस न्यास में एक कार्यपालक समिति भी थी, जिसके चेयरमैन मंडलीय आयुक्त होते हैं।[22]

इस मंदिर का ध्वंस मुस्लिम मुगल शासक औरंगज़ेब ने करवाया था और इसके अधिकांश भाग को एक मस्जिद में बदल दिया। बाद में मंदिर को एक निकटस्थ स्थान पर पुनर्निर्माण करवाया गया।

दुर्गा मंदिर, जिसे मंकी टेम्पल भी कहते हैं; १८वीं शताब्दी में किसी समय बना था। यहां बड़ी संख्या में बंदरों की उपस्थिति के कारण इसे मंकी टेम्पल कहा जाता है। मान्यता अनुसार वर्तमाण दुर्गा प्रतिमा मानव निर्मित नहीं बल्कि मंदिर में स्वतः ही प्रकट हुई थी। नवरात्रि उत्सव के समय यहां हजारों श्रद्धालुओं की भीड़ होती है। इस मंदिर में अहिन्दुओं का भीतर प्रवेश वर्जित है।

इसका स्थापत्य उत्तर भारतीय हिन्दू वास्तु की नागर शैली का है। मंदिर के साथ ही एक बड़ा आयताकार जल कुण्ड भी है, जिसे दुर्गा कुण्ड कहते हैं। मंदिर का बहुमंजिला शिखर है[21] और वह गेरु से पुता हुआ है। इसका लाल रंग शक्ति का द्योतक है। कुण्ड पहले नदी से जुड़ा हुआ था, जिससे इसका जल ताजा रहता था, किन्तु बाद में इस स्रोत नहर को बंद कर दिया गया जिससे इसमें ठहरा हुआ जल रहता है और इसका स्रोत अबव र्शषआ या मंदिर की निकासी मात्र है। प्रत्येक वर्ष नाग पंचमी के अवसर पर भगवान विष्णु और शेषनाग की पूजा की जाती है। यहां संत भास्कपरानंद की समाधि भी है। मंगलवार और शनिवार को दुर्गा मंदिर में भक्तों की काफी भीड़ रहती है। इसी के पास हनुमान जी का संकटमोचन मंदिर है। महत्ता की दृष्टि से इस मंदिर का स्थागन काशी विश्वभनाथ और अन्नेपूर्णा मंदिर के बाद आता है।

संकट मोचन मंदिर राम भक्त हनुमान को समर्पैत है और स्थानीय लोगों में लोकप्रिय है। यहां बहुत से धार्मिक एवं सांस्कृतिक आयोजन वार्षिक रूप से होते हैं। ७ मार्च २००६ को इस्लामी आतंकवादियों द्वारा शहर में हुए तीन विस्फोटों में से एक यहां आरती के समय हुआ था। उस समय मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ थी। साथ ही एक विवाह समारोह भी प्रगति पर था।[23]

व्यास मंदिर, रामनगर प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार जब वेद व्यास जी को नगर में कहीं दान-दक्षिणा नहीं मिल पायी, तो उन्होंने पूरे नगर को श्राप देने लगे।[6] उसके तुरन्त बाद ही भगवान शिव एवं माता पार्वतीएक द पति रूप में एक घर से निकले और उन्हें भरपूर दान दक्षिणा दी। इससे ऋषि महोदय अतीव प्रसन्न हुए और श्राप की बात भूल ही गये।[6] इसके बाद शिवजी ने व्यासजी को काशी नगरी में प्रवेश निषेध कर दिया।[6] इस बात के समाधान रूप में व्यासजी ने गंगा के दूसरी ओर आवास किया, जहां रामनगर में उनका मंदिर अभी भी मिलता है।[6]

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के परिसर में नया विश्वनाथ मंदिर बना है, जिसका निर्माण बिरला परिवार के राजा बिरला ने करवाया था।[24] ये मंदिर सभी धर्मों और जाति के लोगों के लिये खुला है

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